रो-रोकर पुकार रहा हूं,
हमें जमीं से मत उखाड़ो।
रक्तस्राव से भीग गया हूं मैं,
कुल्हाड़ी अब मत मारो।
आसमां के बादल से पूछो,
मुझको कैसे पाला है। 
हर मौसम में सींचा हमको,
मिट्टी-करकट झाड़ा है।
उन मंद हवाओं से पूछो, 
जो झूला हमें झुलाया है।
पल-पल मेरा ख्याल रखा है,
अंकुर तभी उगाया है। 
तुम सूखे इस उपवन में,
पेड़ों का एक बाग लगा लो।
रो-रोकर पुकार रहा हूं, 
हमें जमीं से मत उखाड़ो।
इस धरा की सुंदर छाया,
हम पेड़ों से बनी हुई है। 
मधुर-मधुर ये मंद हवाएं, 
अमृत बन के चली हुई हैं। 
हमीं से नाता है जीवों का,
जो धरा पर आएंगे।
हमीं से रिश्ता है जन-जन का, 
जो इस धरा से जाएंगे। 
शाखाएं आंधी-तूफानों में टूटीं, 
ठूंठ आंख में अब मत डालो।
रो-रोकर पुकार रहा हूं,
हमें जमीं से मत उखाड़ो। 
हमीं कराते सब प्राणी को,
अमृत का रसपान। 
हमीं से बनती कितनी औषधि। 
नई पनपती जान।
कितने फल-फूल हम देते,
फिर भी अनजान बने हो। 
लिए कुल्हाड़ी ताक रहे हो, 
उत्तर दो क्यों बेजान खड़े हो। 
हमीं से सुंदर जीवन मिलता, 
बुरी नजर मुझपे मत डालो। 
रो-रोकर पुकार रहा हूं,
हमें जमीं से मत उखाड़ो। 
अगर जमीं पर नहीं रहे हम, 
जीना दूभर हो जाएगा। 
त्राहि-त्राहि जन-जन में होगी,
हाहाकार भी मच जाएगा। 
तब पछताओगे तुम बंदे, 
हमने इन्हें बिगाड़ा है। 
हमीं से घर-घर सब मिलता है, 
जो खड़ा हुआ किवाड़ा है। 
गली-गली में पेड़ लगाओ,
हर प्राणी में आस जगा दो। 
रो-रोकर पुकार रहा हूं,
हमें जमीं से मत उखाड़ो।
 
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